गीता मनोविज्ञान एक समालोचनात्मक दृष्टि
Abstract
मनीषियों, दार्षनिको, सन्तों और गुरुओं ने इस संसार को दुःख रूप माना है। सामान्य दृष्टि से देखने पर ऐसा प्रतीत नहीं होता किन्तु महर्षि पतंजलि ने इसका समाधान करते हुए अपने ग्रन्थ योगसू़त्र में “दुःख मेव सर्वं विवेकिनः” कहकर बताया है कि- संसार में विवेकी मनुष्य को ही दुःख दिखाई देता है। सांसारिक मनुष्य इस संसार में संघर्ष करता हुआ सुख प्राप्त करने का प्रयास करता रहता है। इसका कारण उसका संषयात्मक मन है। गीता मन की संषयात्मक स्थिति का निवारण आसानी से कर देती है। गीता में मन के विज्ञान को व्यवहारिक मनोविज्ञान के रूप में वर्णित किया है। गीता में मन के विषय में गवेषणात्मक तथ्यों को देखकर सिद्ध होता है कि- गीता एक मनोवैज्ञानिक शास्त्र है। गीता में जिन तथ्यों की आधुनिक विवेचना की गई है वे आधुनिक मनोविज्ञान में प्राप्त नही होते हैं। गीता मनोविज्ञान में अभिक्रम की अनष्वरता को माना गया है। अर्थात कर्म का संस्कार आगे के जन्मों मे भी बना रहता है गीता का मानना है कि- यदि संसार से या दुःखों से दूर होना है तो मन को निस्त्रैगुण्य करना पड़ेगा गीता कर्म से बुद्धि की श्रेष्ठता को स्वीकार करती है। साथ ही केवल शास्त्राभ्यास करना निरर्थक मानती है। गीता में साधना पक्ष के ऊपर बल दिया गया है। किन्तु वहाँ भी वह संसार का त्याग करना स्वीकार नहीं करती बल्कि “युक्त आहार विहार” का पालन करते हुए कर्म करते हुए मन से ऊपर उठने की बात कहती है।
DOI: https://doi.org/10.24321/2456.0510.202101
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