मनोरोगके निवारण में क्रियायोग की भूमिका

  • अलका देवी योग प्रशिक्षिका, दि विजडम ग्लोबल स्कूल, हरिद्वार, उत्तराखंड, भारत।
  • सचिन कुमार अध्यक्ष, योग-षट्कर्मचिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र पतंजलि आयुर्वेद हाॅस्पिटल, हरिद्वार, उत्तराखंड, भारत। http://orcid.org/0000-0003-3936-1770
  • ऋतु त्यागी योग चिकित्सक, ब्ब्त्ल्छ (आयुष मंत्रालय), दिल्ली, भारत।

Abstract

योग विद्या सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानव कल्याण हेतु उपयोगी होती रही है। योग के द्वारा हमारे ऋषि मुनियों ने अध्यात्म जगत में उन्नति के शिखर को छुंआ है और मानव के बहुत से अनसुलझे रहस्यों को उजागर किया है। आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ योग विद्या का मनुष्य के शरीर और मन के विकारों के निराकरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आधुनिक युग में भी योग के अभ्यास से मनुष्य जीवन के सभी द्वन्द्वों से छुटकारा पा सकता है। महर्षि पतंजलि आदि ऋषियोें ने मनुष्य को जीवन की समस्याओं से विचलित न होते हुए किस तरह से उनका समाधान किया जाये इसका ज्ञान सहज ही उपलब्ध करा दिया है। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग विद्या के अद्वितीय ग्रन्थ पतंजलि योग सूत्र में मानव जाति के कल्यणार्थ जो ज्ञान दिया है उसको उन्होंने सूत्रों की एक माला में मोतियों की तरह गंुथा है। प्रत्येक सूत्र अपने आप में सम्पूर्ण योग विद्या को समाये हुए है। इन्ही मोतियों मे से एक मोती ‘‘तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधान’’ को महर्षि पतंजलि ने क्रियायोग के नाम से उल्लेखित किया है। इस सूत्र को जीवन में धारण करने से मनुष्य अपन सांसारिक जीवन के सम्पूर्ण द्वन्द्वों से लड़ते हुए भी जीवन आध्यात्मिक उन्नŸिा के मार्ग के ऊपर तीव्रता से गमन कर सकता है। और सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकारों से मुक्त हो सकता है।


DOI: https://doi.org/10.24321/2456.0510.202011

References

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4. ऋषयःसंयतात्मानः फलमलानिलाशनाः। तपसैव प्रपश्यन्ति त्रैलोक्यं सचरचरम्।। मनुस्मृति- 11/236।
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6. श्रीमद्भगवद्गीता- 17/14।
7. अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता-17/15।
8. मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतŸापो मानसमुच्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता-17/16।
9. कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयाŸापसः।। पा.यो.सू.- 2/43।
10. यद् दुस्तरं यद् दुरापं यद् दुर्गं यच्च दुष्करम्। सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।। मनुस्मृतिम- 238
11. स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्राणां जपः। पा.यो.द. व्यासभाष्य-2/1
12. मोक्षशास्त्राध्ययनं वा। वही।
13. ईश्वरप्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरार्पणम्। वही।
14. तत्फलसंन्यासो वा। वही।
15. स्वाध्यायादिष्ट देवतासंप्रयोगः। पा.यो.सू. 2/44
16. देवा ऋषयः सिद्धश्च स्वाध्यायशीलस्य दर्शनं गच्छन्ति कार्येचास्य वर्तन्त इति।। व्यासभाष्य 2/44
17. यत्करोषि यदश्नासि यज्जुंहोषि ददासि यत्। यŸापस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्। श्रीमद्भगवद्गीता- 9/27।
18. ईश्वरपूजनं नाम प्रसन्नस्वभावेन यथाशक्ति विष्णुरुद्रादिपूजनम्। शाण्डिल्योपनिषद्।
19. जपो नाम विधिवद्गुरुपदिष्टवेदाविज्ञद्धमन्त्राभ्यासः। वही।
20. तत्र देवास्रयः प्रोक्ता लोका वेदास्रयोऽग्नयः। वही।
21. उच्चैरुच्चारणं यथोक्तफलम्। आंशुसहस्रगुण्। मानसं कोटिगुणम्। शाण्डिल्योपनिषद्, प्रथम अध्याय।
Published
2021-07-07
How to Cite
देवी, अलका; कुमार, सचिन; त्यागी, ऋतु. मनोरोगके निवारण में क्रियायोग की भूमिका. Anusanadhan: A Multidisciplinary International Journal (In Hindi), [S.l.], v. 5, n. 3&4, p. 18-22, july 2021. ISSN 2456-0510. Available at: <http://thejournalshouse.com/index.php/Anusandhan-Hindi-IntlJournal/article/view/160>. Date accessed: 02 jan. 2025.